शनिवार, 14 मार्च 2009

गीत
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं।
सबकी अपनी-अपनी करुण - व्यथाएँ हैं....

अपने-अपने पिंजरों में हैं कैद सभी।
और चाहते हैं होना स्वच्छंद सभी।
श्वास-श्वास में कथ्य-कथानक हैं सबमें-
सत्य कहूँ गुन-गुन करते हैं छंद सभी।
अलग-अनूठे शिल्प-बिम्ब-उपमाएँ हैं
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं.....

अक्षर-अजर-अमर हैं आत्माएँ सबकी।
प्रेरक-प्रबल-अमित हैं इच्छाएँ सबकी।
माँग-पूर्ती, उपभोक्ता-उत्पादन हैं सब।
खन-खन करती मोहें मुद्राएँ सबकी।
रास रचता वह, सब बृज बालाएँ है
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं.....

जो भी मिलता है क्रेता-विक्रेता है।
किन्तु न कोई नौका अपनी खेता है।
किस्मत शकुनी के पाँसों से सब हारे।
फिर भी सोचा अगला दाँव विजेता है।
मौन हुई माँ, मुखर-चपल वनिताएँ हैं।
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं.....

करें अर्चना स्वहितों की तन्मय होकर।
वरें वंदना-पथ विधि का मृण्मय होकर।
करें कामना, सफल साधना हो अपनी।
लीन प्रार्थना में होते बेकल होकर।
तृप्ति-अतृप्ति नहीं कुछ, मृग- त्रिश्नाएं हैं।
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं.....

यह दुनिया मंडी है रिश्तों-नातों की।
दाँव-पेंच, छल-कपट, घात-प्रतिघातों की।
विश्वासों की फसल उगाती कलम सदा।
हर अंकुर में छवि है गिरते पातों की।
कूल, घाट, पुल, लहर, 'सलिल' सरिताएँ हैः।
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं.....

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शुक्रवार, 13 मार्च 2009

काव्य का रचना शास्त्र :१
ध्वनि कविता की जान है... प्रश्नोत्तर :
प्रश्नकर्ता- नंदन। निधि अग्रवाल, राजीव रंजन प्रसाद को धन्यवाद।
- उत्साह वर्धन हेतु आभार: प्राण शर्मा, अजय यादव, राजीव तनेजा, दृष्टिकोण, पंकज सक्सेना, गौतम राजरिशी, विजय कुमार सप्पत्ति, रचना सागर, आलोक कटारिया, केवल कृष्ण, अनुज सिन्हा, अभिषेक सागर, अनन्या, मोहिंदर कुमार, सतपाल ख्याल, अनिल कुमार, दिव्यांशु शर्मा, ऋतू रंजन, रंजना, शोभा, अवनीश स। तिवारी, महावीर, लावणयम्, योगेश -- संजीव 'सलिल'
साहित्य क्या है?

मानव-मन में तरंगित होनेवाली ललित भावनाओं और अनुभूतियों की शब्दों में सार्थक और कलापूर्ण अभिव्यक्ति ही साहित्य है.
साहित्य मानव-मन की रमणीय- कलापूर्ण अभिव्यक्ति है.
अनुभूतियों और विचारों की अनगढ़ अभिव्यक्ति को साहित्य नहीं कहा जा सकता। अभिव्यक्ति सरस , रुचिपूर्ण तथा हृद्स्पर्शी होना चाहिए ताकि वह श्रोता या पाठक में मन में सुप्त भाव-तरंगों के उद्वेलित कर उसे रस-प्लावित कर सके। 'स्व' तक सीमित अथवा हर प्रकार के भावों और विचारों की अभिव्यक्ति को भी साहित्य नहीं कहा जा सकता। उक्त परिभाषा में 'ललित' शब्द का संकेत यही है कि 'शिवत्व' अर्थात सबके लिए हितकर, सर्व कल्याणकारी-सरस भावाभिव्यक्ति ही साहित्य है।
'साहित्य' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'सहित' शब्द से मान्य है। 'सहितस्य भावः' (सहित का भाव) साहित्य है। 'सहित' शब्द के दो अर्थ 'साथ' तथा 'समुदाय' हैं। मानव के उद्भव से अब तक सृजित ज्ञान और अनुभव का भण्डार साहित्य है। जैनेन्द्र जी के अनुसार- ' मनुष्य का और मनुष्य जाति का भाषाबद्ध या अक्षर्व्यक्त ज्ञान ही 'साहित्य' है।'
व्यापक अर्थ में साहित्य किसी भाषा में सृजित (लिखित / मौखिक) ज्ञान का भण्डार अथवा ग्रंथों का समुदाय है. हिंदी साहित्य से हिंदी वांग्मय के समस्त ग्रंथों, किसी विषय के साहित्य से उस विषय की सकल पुस्तकों का आशय अभिप्रेत है. यहाँ 'साहित्य' से आशय मानव के भावों और विचारों के प्रगटीकरण से है, भले ही उनकी प्रस्तुति कलापूर्ण न हो किन्तु उनका सृजन सभी के भले हेतु ही किया जाता है. साहित्य और असाहित्य की कसौटी सर्व कल्याण भाव ही है.
एक मान्यता यह भी है की सच्चा साहित्य कभी काल बाह्य (बासी, निरुपयोगी या अप्रासंगिक) नहीं होता। उसमें नित नवीनता, प्रति क्षण रमणीयता होती है. विज्ञानं या अन्य विषयों के साहित्य में नवीन मान्यताओं, नयी खोजों या आविष्कारों से सतत परिवर्तन होते रहते हैं किन्तु साहित्य में अभिव्यक्त चिरंतन सत्य सदा अपरिवर्तनीय होता है. क्रौंच-वध की घटना देश-काल की सीमा से बंधी थे पर क्रौंची के विरह से द्रवित महर्षि वाल्मीकि रचित श्लोक देश-काल की सीमा लांघकर सार्वजनीन-सार्वदेशिक साहित्य की सृष्टि कर सका. यही साहित्य और असाहित्य का अंतर है.

'सहित' के अन्य अर्थ 'हितेन सहितं' (हित-सहित) के अनुसार लोकहित या लोक कल्याण को साहित्य से पृथक नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से मानव में अमानवीय, निकृष्ट, क्षुद्र, पर- पीडाकारी भावनाएं उत्पन्न करनेवाली रचना को साहित्य नहीं कहा जा सकता। यह व्युत्पत्ति 'कला कला के लिए' के सिद्दांत का निराकरण कर यह प्रतिपादित करता है कि साहित्य सृजन निरुद्देश्य नहीं हो सकता. 'साहित्य को पुस्तकों का समुच्चय' या 'संचित ज्ञान का भण्डार' मानने का पाश्चात्य मत साहित्य की व्यापक भारतीय अवधारणा के अनुकूल नहीं हैं. साहित्य को 'जीवन की व्याख्या या आलोचना' अथवा 'जीवन की अभिव्यक्ति' मानने का मत भारतीय दृष्टिकोण से अपेक्षाकृत निकट होते हुए भी पूर्णतः स्वीकार्य नहीं है क्योकि साहित्य न तो जीवन के हर पक्ष की व्याख्या करता है, न ही जीवनेतर ज्ञान की व्याख्या करने को प्रतिबंधित करता है.
साहित्य का क्षेत्र मस्तिष्क नहीं, ह्रदय है। यह कथन भावनात्मक साहित्य के बारे में सटीक है पर वैज्ञानिक साहित्य के बारे में नहीं। साहित्यकार में अनुभूति की तीव्रता रचना को हृद्स्पर्शी तथा विचारों को गतिशील बनाती है। भारतीय चिंतन के अनुसार साहित्य का उद्देश्य जीवन की सरस व्याख्या द्वारा जीवन में सरसता लाकर मानव को मानव बनाना है।, परिष्कृत करना है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार 'साहित्य जनता की चित्त-वृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब' (समाज का दर्पण) है, क्योंकि साहित्य में समाज के विविध रूपों का समावेश होता है, साहित्य समाज में समाज का चेहरा दिखता है। वस्तुतः साहित्य समाज का समाज का दर्पण मात्र नहीं होता. दर्पण खुद निष्क्रिय होता है. साहित्य जड़ नहीं है, वह चेतना से उद्भूत है तथा सचेत कर सुधार की प्रेरणा देता है. साहित्य समाज का दर्पण मात्र नहीं अपितु सचेतक, सुधारक तथा निर्माणक भी है.
आलम्बते तत्क्षणम्भ्सीव विस्तारमन्यत्र न तैलबिन्दुः --मंखक
कैसे करें बखान?, कवि गुण का साहित्य बिन।
कैसे हो विस्तार? तेल-बिंदु का 'सलिल' बिन.
जिस तरह पानी की सतह के बिना तेल-बिंदु का विस्तार नहीं हो पता उसी तरह साहित्य के बिना कवि की कुशलता व्यक्त नहीं हो पाती.
साहित्य कल-कल निनादिनी नर्मदा की अबाध धारा के समान विज्ञ-सुह्रिद्जनों को नित नूतन परिवेश धारण कर आह्लादित करता है.
काव्य और कविता क्या है?

काव्य प्रकाशकार मम्मट के अनुसार: 'तद्दोशौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि' अर्थात 'काव्य ऐसी है जिसके शब्दों और अर्थों में दोष बिलकुल न हों किन्तु गुण अवश्य हों, अलंकार हों या न हों.' तदनुसार गुणों की उपस्थिति तथा दोषों का अभाव ही काव्य का लक्षण है।

पंडित प्रवर जगन्नाथ के शब्दों में: 'रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम' अर्थात 'रमणीय अर्ध प्रतिपादित करनेवाले शब्द काव्य हैं।'

अम्बिकादत्त व्यास के मतानुसार: 'लोकोत्तरानन्ददाता प्रबंधः कव्यनाम्भाक' अर्थात- 'जिस रचना को पढ़कर लोकोत्तर-अलौकिक आनंद हो, वही काव्य है।

महापात्र विश्वनाथ के लिए 'रस से परिपूर्ण वाक्य ही काव्य है'- ' रसात्मकं वाक्यम काव्यम।' लोकोत्तर आनंद, रस, रमणीयता, रागात्मकता कोंई भी शब्द दें काव्य का लक्षण या उद्देश्य दर्द-दुःख को घटना/मिटाना तथा सुख/आनंद को बढ़ाना है.
सार यह की जो रचना पढ़ने या सुनाने पर मानव-मन में आशा और आनंद का संचार करे, वही काव्य है. यह भी कि जो रचना हिट पर कोंई प्रभाव न छोडे, उसे काव्य नहीं कहा जा सकता.
वस्तुतः काव्य मानव-जीवन की अनुभूतियों, चित्त-वृत्तियों तथा श्रृष्टि सौंदर्य की व्याख्या है. दैनंदिन मानव-जीवन की सरस, हृद्स्पर्शी, आनंददायी व्याख्या जिस रचना में जितनी अधिक होगी वह उतनी अधिक सफल कही जायेगी. पाठक या श्रोता अपना सुख-दुःख भूलकर कृति के घटनाक्रम और पात्रों के साथ तन्मय होकर भाव-लोक में विचरण करने लगे, यही काव्यानंद है. काव्यात्मा या काव्यात्मा पर चर्चा अगली कड़ी में होगी.
प्रसिद्ध विचारक सुकरात के अनुसार कविता 'दैवी प्रेरणा से प्रेरित सन्देश है' किन्तु उसके शिष्य प्लेटो के मत में 'कविता सूक्ष्म जगत की प्रतिच्छायामात्र अर्थात मिथ्या व क्षणभंगुर है।अरस्तू उक्त दोनों से अलग कविता को आनंददायी छंद-बद्ध अनुकृति कहा.

सामान्यतः, काव्य से आशय 'काव्य-कृति' से तथा कविता से 'काव्य कृति का अंश' से लिया जाता है। कविताओं का संग्रह काव्य कहलाता है। यथा- महादेवी जी के काव्य से एक कविता...
कविता का महत्व:
अग्नि पुराण के अनुसार काव्य-रचियता (कवि) ब्रम्हा के समकक्ष है।
अररे खलु संसार कविरेव प्रजापतिःयथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते। -- महर्षि व्यास।

शेक्सपिअर कवि को नूतन सृष्टि का रचयिता कहता है। 'the forms of things unknown, the poet's pen turns them to shapes and gives to airy nothings a local habitation and a name।'
-- shakespeare। काव्य का रचना शास्त्र :२-संजीव 'सलिल'
दुग्धापि न दुग्धेव कविर्दोग्ध्रभिरन्वहम।
हृदि न: सन्निधत्ताम सा सूक्तिधेनु: सरस्वती। (उशना कवि)
दुहते कवि गोपाल, सूक्ति धेनु श्री शारदा।
रहे सदा वह अनदुही, ह्रदय विराजे सर्वदा।

वांग्मयमुभयधा शास्त्रं काव्यं च। शास्त्रपूर्वंकत्वात काव्यानां पूर्व शास्त्रे-स्वभिनिविशेत . नह्यप्रवर्तित- प्रदीपास्ते तत्वार्थसार्थमध्यक्ष्यंति.

अर्थात- वांग्मय के दो रूप शास्त्र और काव्य है। काव्य सृजन के पूर्व शास्त्र-ज्ञान अनिवार्य है. शास्त्र रूपी दीपक के प्रकाश के बिना तत्वार्थ का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता.

भारतीय काव्य शास्त्र परंपरा :

विश्व वांग्मय के आदि महाग्रन्थ ऋग्वेद ( रचनाकाल अविनाश चंद दास के अनुसार भूगर्भ शास्त्र के अनुसार लाखों वर्ष पूर्व१, डॉ। ऐ। सी। दत्त के मत में ७५००० से ५०००० ई। पू।, जर्मन विद्वान जैकोबी एवं बाल गंगाधर तिलक के मत में ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ४५०० ई. पू., पं. रामगोपाल द्विवेदी के अनुसार ५०००० से १८००० ई; पू;, विंटर नित्ज़ के अनुसार २५०० ई; पू;, मक्स्मूलर के मत में १५०० ई.;पू; में रचित)२ के १० मंडलों, १०२८ सूक्तों में विविध ऋषियों ( वागाम्भ्रिणी३, घोषा काक्षीवती४, अपाला, आत्रेयी५, आदि महिला ऋषियों सहित) ने अन्य विषयों के साथ काव्य शास्त्र का भी अद्भुत वर्णन किया है.
ऋग्वेद में सूर्य का वर्णन स्वर्ण-रथारोही के रूप में है।
'हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन।६
अर्थात- 'स्वर्ण-रथ पर आ रहा रवि भुवन सारे देखता।'
सामवेद में १५४९ मंत्रों में मधुर-सरस प्रार्थना कर देवों की प्रसन्नता चाही गयी है। उषा के अनिंद्य सौंदर्य की प्रशंसा कर उसे सूर्य की प्रेयसी कहते हुए प्रार्थना की गयी है-
'रूपसी नृत्यांगना सम वासन सुन्दर किये धारण।
उषा प्राची में प्रगट सौन्दर्य का करती प्रकाशन।
चिर पुरातन-चिर नवीन, यौवना रवि-प्रेयसी यह,
जन्मती हर प्रात फिर-फिर, अमर-अक्षय रूपसी यह।
- यजुर्वेद ( मैक्समूलर के अनुसार १००० ई।पू।)९ में सत-असत के संघर्ष (देवासुर संग्राम), वर्ण-व्यवस्था, दस्तकारी, विज्ञान, व्यवसाय तथा यज्ञ आदि के वर्णन में गद्य-पद्य का मिला-जुला प्रयोग किया गया है।८
-अथर्ववेद के २० कांडों, ७३० सूक्तों व ६००० मंत्रों में धर्म, नीति, आयुर्वेद, सौर ऊर्जा, ज्योतिष, वर्ण-व्यवस्था, ईश-भक्ति, समाजशास्त्र आदि का काव्यमय वर्णन है।१० इसमें गोपथ ब्राम्हण भी है। प्रसिद्ध विद्वान डॉ। विष्णुकांत वर्मा ने वेदों में आध्यात्म विद्या तथा ऋग्वेद में सृष्टि उत्पत्ति एवं परमाणु विज्ञानं के अनेक प्रमाण दिए हैं।

-ब्राम्हण साहित्य (ई।पू. ५००-१००) में वेड मंत्रों के भाष्य, यज्ञ-विज्ञानं, वास्तु, गणित, दर्शन तथा एतिहासिक कथाएं हैं. इनमें भ्रामक मीमांसाओं११ व कर्मकांड को महत्व देते हुए अधिकांश सृजन गद्य में किया गया. -आरण्यक ग्रंथों में द्फर्शन, आध्यात्म, आत्मा, ब्रम्ह, शिक्षा, व्याकरण, छड़, निरुक्त, कल्प, ज्योतिष आदि वेदांगों का सृजन मुख्यतः सन्यासियों के लिया किया गया.

-ई।पू। ६०० से रचित १०८ उपनिषदों में ब्रम्हा, आत्मा, मृत्योपरांत जीवन, पुनर्जन्म, वर्णाश्रम आदि का वर्णन है. अल्लोपनिषद की रचना मुग़ल सम्राट अकबर के काल में हुई. उप्निशादोम में काव्य विधा को बहुत महत्व मिला. सृष्टि का निर्माण करनेवाले परम तत्त्व को अनादी. अनंत, नित्य, सर्व-व्यापी मानने की औपनिषदिक अवधारणा अधुनातन विज्ञानं भी मानता है.
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवाव्शिष्यते.१२
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण से उत्पन्न पूर्ण।
पूर्ण से निकल पूर्ण, शेष तब भी रहे पूर्ण।

मुण्डक उपनिषद में ॐ को धनुष, आत्मा को तीर तथा ब्रम्ह को लक्ष्य बताया गया है।१३ क्रमशः आत्मा से आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी तथा वनस्पति उत्पन्न होने की औपनिषदिक धारणा१४ को विज्ञानं भी स्वीकारता है.

- ४ उपवेदों (आयुर्वेद, धनुर्वेद, गांधर्ववेद, अर्थशास्त्र), ६ वेदांगों (शिक्षा, छंद, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष एवं कल्प) तथा उपांगों में गद्य तह पद्य का निरंतर विकास हुआ। शिक्षा को वेदों की नासिका, छंद को चरण, व्याकरण को मुख, निरुक्त को कान, ज्योतिष को आँख तथा कल्प को हाथ कहा जाना बताता है कि इस काल में गद्य-पद्य दोनों को यथोचित महत्व
-सूत्र साहित्य (श्रौत, गृह्य तथा धर्म सूत्र) में कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की काव्यात्मक शैली का विकास हुआ।
सन्यास: कर्म योगश्च: नि:श्रेयस करावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंयासातकर्मयोगो विशिष्टते।१६
करते हैं सन्यास औ' कर्मयोग कल्याण।
तदपि कर्म-सन्यास से कर्म-योग गुणवान।
तपस्विभ्योधिको योगी, ज्ञानिभ्योपि गतोधिकः।
कर्म्श्चाधिको योगी, तस्माद्योगी भवर्जुन।१७
तापस ज्ञानी सुकर्मी, योगी सबमें श्रेष्ठ।
बनकर योगी, पार्थ तू, हो जा सबसे ज्येष्ठ.

श्री कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश शरीर को आत्मा का वस्त्र बताया।१८ इसी तरह कविता को अनुभूतियों का वस्त्र कहा जा सकता है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचिन
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि। १९
तुझे कर्म अधिकार है, सोच न तू परिणाम।
तज निष्क्रियता कर्म कर, कुछ भी हो अंजाम।
काव्य को ई। पू। १२०० - ई. पू. १०० में रचित १८ पुराणों ( ब्रम्ह, पद्म, वायु, विष्णु, भागवत, नारद, मार्कंडेय, अग्नि, भविष्य, ब्रम्हवैवर्त, लिंग, वाराह, स्कन्द, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड़, ब्रम्हांड) तथा १८ उप-पुराणों ( नृसिंह, सनत्कुमार, नन्द, शिव, दुर्वासा, नारद, कपिल, वामन, उपनस, मानव, वरुण, काली, महेश्वर, साम्ब, सौर, पराशर, मारीच, भार्गव) में पर्याप्त महत्त्व मिला. इनमें राजवंशों, युद्धों, पंथों, सम्प्रदायों, सृष्टि-उत्पत्ति व देवताओं का वर्णन है. २०,२१,२२ ई. पू. २०० -३०० ई. के बीच लिखित १५२ स्मृतियों तथा उनकी टीकाओं ने वेदान्त, सांख्य, लोकाचार, मानव-मूल्यों, वर्ना तथा दंड व्यवस्था आदि का समावेश है. २३ काव्य को शिखर पर ले जाने का कार्य किया महर्षि वाल्मीकि और 'रामायण' ने. एक बहेलिये द्वारा मिथुनरत क्रौंच युगल पर शर संधान के कारण नर की असमय मृत्यु तथा मादा के करूँ विलाप से शोकग्रस्त पूर्व दस्यु महर्षि वाल्मीकि के मुंह से अनायास ही निम्न काव्य-पंक्तियाँ निःसृत हुईं. २३,२४
मा निषाद प्रतिष्ठामत्वमगमः शाश्वती समाः
यत्क्रौंच मिथुनादेकम्वधी: काममोहितं॥
हे निषाद! तुझको कभी, किंचित मिले न मान।
रति-क्रीडारत क्रौंच का,वध दुष्कृत्य महान।
। पू। ५०० में रचित रामायण ने काव्य के मानकों का निर्धारण किया। अभूतपूर्व कथावस्तु, अद्भुत चरित्र-चित्रण, उदात्त विषय, प्रांजल भाषा, चारू छंद-वैविध्य, भावः गाम्भीर्य, रम्य अलंकार, सर्व हितकर आदर्श, कालजयी नायक-नायिका, श्वास रोधक घटना क्रम, रोचक उपकथायें, मनहर प्रकृति चित्रण, विविध रसों का समन्वय, वैचारिक द्वंद, न्याय-अन्याय की संघर्ष कथा आदि काव्य-मानक रामायण में पहली बार सामने आये। २५, २६, २७ ९ कांडों (मूलतः ५) तथा २४००० श्लोकों के इस ग्रन्थ में वाल्मीकि ने मछलियोंरूपी करधनी का प्रदर्शन करती नदी के गति उसी तरह मंद होने की कल्पना के है जैसे पतियों द्वारा रात्रि में भोगी गयी कामिनियों की प्रातः काल होती है। यह जीवंत शब्द-चित्र अपनी मिसाल आप है।
मीनोपसन्दर्शितमेखलाम नदीवधूनाम गत्योद्य मंदाह।
कान्तोपभुक्तालासगामिनीनां प्रभात्कालेश्विव कामिनीनाम।२८
मत्स्य मेखला सुशोभित, सलिला वधु-गति मंद।
कान्त रमित रमणी चले, प्रातः अलस- गयंद ।
- भारतीय काव्य शास्त्र परंपरा को समृद्ध किया ई। पू। १००० में महर्षि वेदव्यास रचित १८ पर्वों में १ लाख श्लोकों में रासबिहारी गोवर्धनधारी श्री कृष्ण की कालजयी कथा के बहाने सत-असत के संघर्ष की महागाथा कहने वाले महाकाव्य / महाभारत (पूर्व नाम जय-विजय, भारत) ने। इसे धर्मशास्त्र, स्मृति तथा कार्ष्ण वेद, पंचम वेद भी कहा गया। आरम्भ में मात्र २०००० श्लोकों वाले इस महाकाव्य में श्री मदभगवद गीता की स्वतंत्र कथा, शिव व विष्णु संबन्धी प्रसंग (ई।पू।३००), हरिवंश आदि जुड़ गए। इस कृति का उद्देश्य काव्य सौष्ठव नहीं धार्मिक-दार्शनिक-सामाजिक-राजनैतिक विसंगतियों, दोहरे जीवन मूल्यों, आडम्बरों तथा स्वर्थ्प्रधन प्रवृत्ति को उद्घाटित कर आदर्श, औदार्य, संयम, चारित्र्य, शौर्य, त्याग तथा समानता के सप्त सूत्रों को पुनर्प्रतिष्ठित करना है। रामायण में भी यही आदर्श आर्य-अनार्य सांस्कृतिक संघर्ष की कथा से स्थापित करने का प्रयास किया गया था। रामायण में राम स्वयं शःत्र उठाकर संघर्ष करते हैं जबकि महाभारत में कृष्ण नि:शास्त्र रहकर परिवर्तन का पथ प्रशस्त करते हैं। राम के संघर्ष का हेतु अपनी पत्नी को पाना है किन्तु कृष्ण तो सत्य की स्थापना के लिए संकल्पित हैं। इन ग्रंथों से भारतीय काव्य परंपरा की प्रकृति ज्ञात होती है जो उदात्तता की ओर उन्मुख होने को काव्य सृजन का लक्ष्य मानती है। ३०-३१ महाभारत का उद्देश्य अन्य होते हुए भी इसमें काव्य गुणों तथा पृकृति चित्रण के मनिहार प्रसंग शब्दांकित हैं। चंद्रोदय का निम्न प्रसंग रचनाकार के सामर्थ्य की बानगी है-
ततः कुमुदनाथेन कामिनीगंडपांडुना ।
नेत्रानन्देन चन्द्रेण माहेन्द्री दिग्लंक्रिता॥
शुभ्र कामिनी गाल सम, शोभित शतदल कन्त।
नयनानन्दी चन्द्र से, सज्जित प्राच्य दिगंत।
अन्य प्रसंग में द्रौपदी की अनिंद्य रूप्राशी का वर्णन करते हुए स्वयम्वर में जाते ब्राम्हण युधिष्ठिर से कहते हैं की उस क्षीण कटी , निर्दोष अंगवाली धृष्टद्युम्न की बहिन की काया से निकलनेवाली नीलकमल सी गंध एक कोस दूर तक बहती है।
स्वसा तस्यानवद्यांगी द्रौपदी तनुमध्यमा।
नीलोत्पल्सम गन्धो यस्याः कोशात प्रवाती वै..
कृष्णा काम्या क्षीण कटि, तन्वंगी सुकुमार।
नील पद्म सी सुवासित, कोसों बहे बयार.

भारतीय काव्य परंपरा के दुर्निवार आकर्षण से बौद्ध (त्रिपिटिक- विनय, सुत्त, अभिधम्म, थेरी गाथा) तथा जैन (१२ अंग, १२ उपांग, १० प्रकीर्ण, सूत्रादि) भी नहीं बच पाए। इस परंपरा ने वैदिक, लौकिक- प्राकृत, पाली, अपभ्रंश, शौरसेनी, मागधी, संस्कृत, बंगला, मराठी, मैथिली, ब्रिज भोजपुरी, अंगिका, बज्जिका, तमिल। तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, गुजराती, मालावी, निमाड़ी, बुन्देली, बघेली, मारवाडी, शेखावाटी, काठियावाडी छतीसगढी, उड़िया आदि पर भी अपना प्रभाव छोडा और उन्हें अपने दामन में समाहित कर लिया।
क्रमशः
सन्दर्भ: १। शिवदत ज्ञानी- भारतीय संस्कृति, पृष्ठ २०३। २। सुशील धर द्विवेदी- भारतीय संस्कृति के पांच अध्याय, पृष्ठ १५९, ३ से ६। ऋग्वेद- १०/१२५, १०/३९, ८/९२, १/३५/२, ७। सामवेद- ३-६१/१ -५, ८। उक्त २, पृष्ठ १६१, ९। उक्त १, पृष्ठ २०३, १०। अथर्व वेद ३/४/२, ११। उक्त २, पृष्ठ १६३, १२। वृहदारण्यक २/५/१९, १३। मुंडकोपनिषद १/१/६, १४। तैत्तरीयोपनिषद २/१/६/७, १५। रामधारी सिंह दिनकर- संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ १६३, १६ से १९ । गीता ५/२, ६/४६, २/२२-२३, २/४७, २०। उक्त १ पृष्ठ२२०, २१। उक्त १ पृष्ठ२५९, २२। उक्त २ पृष्ठ १७२-१७६, २३। हीरामणि द्वारकादास बरसैंया- भारतीय संस्कृति : क्या और कैसे? पृष्ठ ५२-५३, २४। उक्त २ पृष्ठ१७९, २५। उक्त १ पृष्ठ२१५-२१६, २६। राधाकुमुद मुखर्जी- प्राचीन भारत पृष्ठ४१, २७। उक्त २५, २८। उक्त २४, २९. उक्त१ पृष्ठ २१७-२१८, ३०. उक्त २ पृष्ठ१८०-१८१, ३१. उक्त २६, ३२. महाभारत द्रोण पर्व ११/२५९, ३३. महाभारत आदि पर्व १८३/१०, ३४. उक्त२ पृष्ठ १८२-१८५.
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आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - एक परिचय


आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - एक परिचय [काव्य का रचना शास्त्र ] - स्थायी स्तंभ
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साहित्य शिल्पी पर नये स्थायी स्तंभ " काव्य का रचना शास्त्र" आरंभ करते हुए हम हर्षित हैं। आचार्य संजीव वर्मा "सलिल" की समर्पित रचनाकार हैं जो अंतर्जाल को साहित्य के प्रसार का महत्वपूर्ण माध्यम मानते हैं एवं हिन्दी तथा साहित्य को इस माध्यम में स्थापित करने की दिशा में आप समर्पित हैं। सलिल जी नें साहित्य शिल्पी को कविता, उसके स्वरूप, आयामो, इतिहास, छंद व उसके स्वरूप, रस, अलंकार और भी बहुत से विषयों को स्थायी स्तंभ के रूप प्रस्तुत करने की स्वीकृति प्रदान की है। हमने इस स्तंभ के विधिवत आरंभ करने से पूर्व यह उचित समझा कि आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी से पाठकों को परिचित कराया जाये। आईये उनका अभिनंदन करें।
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बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' एक व्यक्ति मात्र नहीं अपितु संस्था भी है. अपनी बहुआयामी गतिविधियों के लिए दूर-दूर तक जाने और सराहे जा रहे सलिलजी ने हिन्दी साहित्य में गद्य तथा पद्य दोनों में विपुल सृजन कर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई है. गद्य में कहानी, लघु कथा, निबंध, रिपोर्ताज, समीक्षा, शोध लेख, तकनीकी लेख, तथा पद्य में गीत, दोहा, कुंडली, सोरठा, गीतिका, ग़ज़ल, हाइकु, सवैया, तसलीस, क्षणिका, भक्ति गीत, जनक छंद, त्रिपदी, मुक्तक तथा छंद मुक्त कवितायेँ सरस-सरल-प्रांजल हिन्दी में लिखने के लिए बहु प्रशंसित सलिल जी शब्द साधना के लिए भाषा के व्याकरण व् पिंगल दोनों का ज्ञान व् अनुपालन अनिवार्य मानते हैं. उर्दू एवं मराठी को हिन्दी की एक शैली माननेवाले सलिल जी सभी भारतीय भाषाओं को देव नागरी लिपि में लिखे जाने के महात्मा गाँधी के सुझाव को भाषा समस्या का एक मात्र निदान तथा राष्ट्रीयता के लिए अनिवार्य मानते हैं.

श्री सलिल साहित्य सृजन के साथ-साथ साहित्यिक एवं तकनीकी पत्रिकाओं और पुस्तकों के स्तरीय संपादन के लिए समादृत हुए हैं. वे पर्यावरण सुधार, पौधारोपण, कचरा निस्तारण, अंध श्रद्धा उन्मूलन, दहेज़ निषेध, उपभोक्ता व् नागरिक अधिकार संरक्षण, हिन्दी प्रचार, भूकंप राहत, अभियंता जागरण आदि कई क्षेत्रों में एक साथ पूरी तन्मयता सहित लंबे समय से सक्रिय हैं. मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग में सहायक अभियंता एवं म.प्र. सड़क विकास निगम में उप महाप्रबंधक के रूप में उन्होंने बिना लालच या भय के अपने दायित्व का कुशलता से निर्वहन किया है.
साहित्य सृजन :-
श्री सलिल की प्रथम कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है जिसमें चराचर के कर्म देव श्री चित्रगुप्त को परात्पर परमब्रम्ह, सकल सृष्टि रचयिता एवं समस्त शक्तियों का स्वामी प्रतिपादित कर नव अवधारणा प्रस्तुत की गई है. 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' सलिल जी की छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं. सम्यक शब्दावली, शुद्ध भाषा, सहज प्रवाह, सशक्त प्रतीक, मौलिक बिम्ब विधान, सामयिक विषय चयन तथा आशावादी दृष्टिकोण के सात रंगों के इन्द्र धनुष सलिल जी की कविताओं को पठनीय ही नहीं मननीय भी बनाते हैं. सलिल जी की चौथी प्रकाशित कृति 'भूकंप के साथ जीना सीखें' उनके अभियांत्रिकी ज्ञान का समाज कल्याण हेतु किया गया अवदान है. इसमें २२ मई १९९७ को जबलपुर में आए भूकंप से क्षतिग्रस्त इमारतों की मरम्मत तथा भूकंपरोधी भवन निर्माण की तकनीक वर्णित है.
उक्त के अतिरिक्त विविध विषयों एवं विधाओं पर सलिल जी की २० कृतियाँ अप्रकाशित हैं. होशंगाबाद से प्रकाशित पत्रिका 'मेकलसुता' के प्रवेशांक से सतत प्रकाशित-प्रशंसित हो रही लेखमाला 'दोहा गाथा' सलिल जी का अनूठा अवदान है जिसमें हिन्दी वांग्मय के कालजयी छंद दोहा के उद्भव, विकास, युग परिवर्तन में दोहा की निर्णायक भूमिका के प्रामाणिक उदाहरण हैं.
संपादन :-
इंजीनियर्स टाइम्स, यांत्रिकी समय, अखिल भारतीय डिप्लोमा इंजीनियर्स महासंघ पत्रिका, म.प्र. डिप्लोमा इंजीनियर्स मंथली जर्नल, चित्राशीश, नर्मदा, दिव्य नर्मदा आदि पत्रिकाओं; निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों एवं शिल्पान्जली, लेखनी, संकल्प, शिल्पा, दिव्यशीश, शाकाहार की खोज, वास्तुदीप, इंडियन जिओलोजिकल सोसायटी स्मारिका, निर्माण दूर भाषिका जबलपुर, निर्माण दूर्भाशिका सागर, विनायक दर्शन आदि स्मारिकाओं का संपादन कर सलिल जी ने नए आयाम स्थापित किए हैं.
समयजयी साहित्य शिल्पी भागवतप्रसाद मिश्र 'नियाज़' : व्यक्तित्व एवं कृतित्व श्री सलिल द्वारा संपादित श्रेष्ठ समालोचनात्मक कृति है. उक्त के ऐरिक्त सलिल जी ने ८ परतों के २१ रचनाकारों की २४ कृतियों की भूमिकाएँ लिखी हैं. यह उनके लेखन-संपादन कार्य की मान्यता, श्रेष्ठता एवं व्यापकता का परिणाम है.
काव्यानुवाद:
हिन्दी, संस्कृत एवं अंग्रेजी के बीच भाषा सेतु बने सलिल ने ११ कृतियों के काव्यानुवाद किए हैं. रोमानियन काव्य संग्रह 'लूसिया फैरुल' का काव्यानुवाद 'दिव्य ग्रह' उनकी भाषिक सामर्थ्य का प्रमाण है. उन्होंने हिन्दी, अग्रेजी के साथ-साथ भोजपुरी, निमाड़ी, छत्तीसगढ़ी, बुन्देली, मराठी, राजस्थानी आदि में भी कुछ रचनाएं की हैं. विविध साहित्यिक एवं तकनीकी विषयों पर १५ शोधपत्र प्रस्तुत कर चुके सलिल भाषा सम्बन्धी विवादों को निरर्थक तथा नेताओं का शगल मानते हैं.
५ साहित्यकार कोशों में सलिल जी का सचित्र जीवन परिचय तथा ६० से अधिक काव्य- कहानी संग्रहों में रचनाएँ सादर प्रकाशित की जा चुकी हैं.
सामाजिक-साहित्यिक कार्य :
सलिल जी ने अभियंता संगठनों, कायस्थ सभाओं, साहित्यिक संस्थाओं तथा सामाजिक मंचों पर गत ३१ वर्षों से निरंतर उल्लेखनीय योगदान किया है. अभियान जबलपुर के संस्थापक अध्यक्ष के रूप में पौधारोपण, कचरा निस्तारण, बाल एवं प्रौढ़ शिक्षा प्रसार, स्वच्छता तथा स्वास्थ्य चेतना प्रसार, नागरिक एवं उपभोक्ता अधिकार संरक्षण, आपदा प्रबंधन आदि क्षेत्रों में उन्होंने महती भूमिका निभाई है.
अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण अभियान के माध्यम से साहित्यकारों की स्मृति में अलंकरण स्थापित कर १९९५ से प्रति वर्ष उल्लेखनीय योगदान हेतु रचनाकारों को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित करने के लिए वे चर्चित हुए हैं. 'दिव्य नर्मदा' शोध साहित्यिक पत्रिका के कुशल संपादन ने उन्हें राष्ट्रीय ख्याति दिलाई.
इंजीनियर्स फॉरम के राष्ट्रीय महामंत्री के रूप में अभियंता प्रतिभाओं की पहचानकर उन्हें जोड़ने एवं सम्मानित करने, अभियंता दिवस के आयोजन, जबलपुर में भारत रत्न मोक्ष्गुन्दम विस्वेस्वरैया की ७ प्रतिमाएं स्थापित कराने, म.प्र. डिप्लोमा अभियंता संघ के उपप्रान्ताध्यक्ष, पत्रिका संपादक, प्रांतीय लोक निर्माण समिति अध्यक्ष आदि पदों पर २७ वर्षों तक निस्वार्थ उल्लेखनीय कार्य करने के लिए वे सर्वत्र प्रशंसित हुए.
प्रादेशिक चित्रगुप्त महासभा म.प्र. के महामंत्री व संगठन मंत्री. अखिल भारतीय कायस्थ महासभा के उपाध्यक्ष, प्रशासनिक सचिव व मंडल अध्यक्ष, राष्ट्रीय कायस्थ महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष आदि पदों पर उन्होंने अपनी मेधा, लगन, निष्पक्षता तथा विद्वता की छाप छोड़ी है. नागरिक उपभोक्ता संरक्षण मंच जबलपुर के माध्यम से जन जागरण, नर्मदा बचाओ आन्दोलन में डूब क्षेत्र के विस्थापितों को राहत दिलाने, आपात काल में छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी में सहभागिता, समन्वय जबलपुर के माध्यम से लोक नायक व्याख्यान माला का आयोजन, शहीद परिवारों को सहायता आदि अभिनव कार्यक्रमों को क्रियान्वित करने में उन्होंने किसी प्रकार की सरकारी सहायता नहीं ली. उनकी सोच है की लोक तंत्र की सफलता के लिए लोक को तंत्र पर आश्रित न होकर अपने कल्याण के लिए साधन ख़ुद जुटाना होंगे अन्यथा लोक अपनी अस्मिता की रक्षा नहीं कर सकेगा.
शिक्षा:
कलम के धनी कायस्थ परिवार में कवयित्री श्रीमती शान्ति देवी तथा लेखक श्री राज बहादुर वर्मा,सेवा निवृत्त जेल अधीक्षक के ज्येष्ठ पुत्र सलिल को शब्द ब्रम्ह आराधना विरासत में मिली है. उन्होंने नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ.., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है. वे सेवा निवृत्ति के बाद एम.बी.ऐ. तथा पी-एच.डी. करना चाहते हैं.
सम्मान :
श्री सलिल को देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, कायस्थ कीर्तिध्वज, कायस्थ भूषण २ बार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, वास्तु गौरव, सर्टिफिकेट ऑफ़ मेरिट ५ बार, उत्कृष्टता प्रमाण पत्र २, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, सत्संग शिरोमणि, साहित्य श्री ३ बार, साहित्य भारती, साहित्य दीप, काव्य श्री, शायर वाकिफ सम्मान, रासिख सम्मान, रोहित कुमार सम्मान, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, नोबल इन्सान, मानस हंस, हरी ठाकुर स्मृति सम्मान, बैरिस्टर छेदी लाल स्मृति सम्मान, सारस्वत साहित्य सम्मान २ बार . उनकी प्रतिभा को उत्तर प्रदेश, राजस्थान, एवं गोवा के महामहिम राज्यपालों, म.प्र. के विधान सभाध्यक्ष, राजस्थान के माननीय मुख्या मंत्री, जबलपुर - लखनऊ एवं खंडवा के महापौरों, तथा हरी सिंह गौर विश्व विद्यालय सागर, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के कुलपतियों तथा अन्य अनेक नेताओं एवं विद्वानों ने विविध अवसरों पर उनके बहु आयामी योगदान के लिए सम्मानित किया है.
Posted by साहित्य-शिल्पी
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20 comments:
नंदन March 4, 2009 7:43 AM
आचार्य संजीव वर्मा सलिल का साहित्य शिल्पी पर स्वागत। काव्य का रचना शास्त्र महत्वपूर्ण स्तंभ सिद्ध होगा।
रितु रंजन March 4, 2009 8:01 AM
संजीव जी का स्वागत।
अजय यादव March 4, 2009 8:09 AM
आदरणीय संजीव जी का साहित्य शिल्पी मंच पर स्वागत है। उनके इस स्तंभ से हिंदी-साहित्य के सभी छात्रों को इसकी बारिकियों को समझने में बहुत सहायता मिलेगी; ऐसी आशा है।मैं स्वयं व्यक्तिगत रूप से इस स्तंभ के लिये प्रतीक्षारत हूँ।
रचना सागर March 4, 2009 8:11 AM
आचार्य संजीव सलिल का अभिनंदन। काव्य का रचना शास्त्र आवश्यक है स्तंभ के रूप में प्रस्तुत करना, हम कुछ सीख सकेंगे।
Anonymous March 4, 2009 8:15 AM
Welcome sir.Alok Kataria
राजीव तनेजा March 4, 2009 9:23 AM
स्वागत है
दृष्टिकोण March 4, 2009 9:39 AM
आपका अभिनंदन सलिल जी, हम आपसे सीखने को तत्पर हैं।
अनिल कुमार March 4, 2009 9:52 AM
इस स्तंभ की घोषणा से अच्छा लगा। आपका स्वागत है सलिल जी।
अनन्या March 4, 2009 10:53 AM
आचार्य संजीव वर्मा सलिल का साहित्य शिल्पी पर स्वागत है। इस स्तंभ की बहुत आवश्यकता थी।
दिव्यांशु शर्मा March 4, 2009 10:56 AM
सलिल जी के स्थायी स्तंभ की शुरुआत निश्चय ही एक सराहनीय प्रयास है जिस के लिए साहित्य शिल्पी टीम बधाई की पात्र है अंतर्जाल पर सक्रिय नवीन प्रतिभाशाली लेखकों के लिए ये महत्त्वपूर्ण है कि वे काव्य और हिंदी भाषा से जुडी सभी बारीकियों को समझें ग़ज़ल व्याकरण सम्बन्धी स्तंभ एवं समालोचना स्तंभ के पश्चात काव्य रचनाशास्त्र के लिए और स्थाई स्तंभ दे आप ने एक और नयी कड़ी आरम्भ की है साहित्य शिल्पी को एक अध्ययन शाला कहना ग़लत ना होगा :-)
पंकज सक्सेना March 4, 2009 11:59 AM
स्वागत।
निधि अग्रवाल March 4, 2009 12:17 PM
इस स्तंभ की प्रतीकःआ रहेगी। संजीव सलिल जी का बायोडाटा पढ कर ही यह उम्मीद जग गयी है कि हम इस स्तंभ द्वारा बहुत लाभांवित होंगे।
गौतम राजरिशी March 4, 2009 12:26 PM
साहित्य-शिल्पी के ये प्रयास ऐतिहासिक हैं....आचार्य सलिल की कक्षा का इंतजार रहेगा
Kewal Krishna March 4, 2009 1:30 PM
अभिनंदन है।
मोहिन्दर कुमार March 4, 2009 4:13 PM
सलिल जीआपका साहित्य शिल्पी पर हार्दिक स्वागत है. सभी पाठक आपके इस स्थायी स्तंभ से लाभाविन्त होगे.आभार
राजीव रंजन प्रसाद March 4, 2009 5:08 PM
आचार्य संजीव सलिल का साहित्य शिल्पी में अभिनंदन है। आपके माध्यम से साहित्य शिल्पी के पाठक लाभांवित होंगे।
Pran Sharma March 4, 2009 5:42 PM
Aachharya Sanjeev Verma Salil kaaSahitya Shilpi par hardik abhinandan.Unkee vidvataa se humsabhee avashya laabhanvit honge.
rachana March 4, 2009 8:11 PM
sanjeev ji ke bare me itni jankari pa ke bahut hi achchha laha .aap ka naman karti hoon saaderrachana
महावीर March 4, 2009 11:40 PM
आचार्य संजीव सलिल का साहित्य शिल्पी पर अभिनंदन है। इस स्थाई स्तंभ से सभी बहुत लाभानवित होंगे।महावीर शर्मा
Vijay Kumar Sappatti March 7, 2009 12:55 PM
sanjeev ji ka swagat hai , at least ab mujh jaise nauseekhyeo ko kuch na kuch to seekhne ko milenga . main shahityashilpi ko is prayaas ke liye dhanyawad deta hoon ..vijay http://poemsofvijay.blogspot.com/

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

kavya ka rachna shastra: 1

काव्य का रचना शास्त्र : १

-संजीव


-ध्वनि कविता की जान है...

ध्वनि कविता की जान है, भाव श्वास-प्रश्वास।
अक्षर तन, अभिव्यक्ति मन, छंद वेश-विन्यास।।

अपने उद्भव के साथ ही मनुष्य को प्रकृति और पशुओं से निरंतर संघर्ष करना पड़ा। सुन्दर, मोहक, रमणीय प्राकृतिक दृश्य उसे रोमांचित, मुग्ध और उल्लसित करते थे। प्रकृति की रहस्यमय-भयानक घटनाएँ उसे डराती थीं । बलवान हिंस्र पशुओं से भयभीत होकर वह व्याकुल हो उठता था। विडम्बना यह कि उसका शारीरिक बल और शक्तियाँ बहुत कम। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए उसके पास देखे-सुने को समझने और समझाने की बेहतर बुद्धि थी।

बाह्य तथा आतंरिक संघर्षों में अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने और अन्यों की अभिव्यक्ति को ग्रहण करने की शक्ति का उत्तरोत्तर विकास कर मनुष्य सर्वजयी बन सका। अनुभूतियों को अभिव्यक्त और संप्रेषित करने के लिए मनुष्य ने सहारा लिया ध्वनि का। वह आँधियों, तूफानों, मूसलाधार बरसात, भूकंप, समुद्र की लहरों, शेर की दहाड़, हाथी की चिंघाड़ आदि से सहमकर छिपता फिरता। प्रकृति का रौद्र रूप उसे डराता।

मंद समीरण, शीतल फुहार, कोयल की कूक, गगन और सागर का विस्तार उसमें दिगंत तक जाने की अभिलाषा पैदा करते। उल्लसित-उत्साहित मनुष्य कलकल निनाद की तरह किलकते हुए अन्य मनुष्यों को उत्साहित करता। अनुभूति को अभिव्यक्त कर अपने मन के भावों को विचार का रूप देने में ध्वनि की तीक्ष्णता, मधुरता, लय, गति की तीव्रता-मंदता, आवृत्ति, लालित्य-रुक्षता आदि उसकी सहायक हुईं। अपनी अभिव्यक्ति को शुद्ध, समर्थ तथा सबको समझ आने योग्य बनाना उसकी प्राथमिक आवश्यकता थी।

सकल सृष्टि का हित करे, कालजयी आदित्य।
जो सबके हित हेतु हो, अमर वही साहित्य।।

भावनाओं के आवेग को अभिव्यक्त करने का यह प्रयास ही कला के रूप में विकसित होता हुआ साहित्य के रूप में प्रस्फुटित हुआ। सबके हित की यह मूल भावना 'हितेन सहितं' ही साहित्य और असाहित्य के बीच की सीमा रेखा है जिसके निकष पर किसी रचना को परखा जाना चाहिए। सनातन भारतीय चिंतन में 'सत्य-शिव-सुन्दर' की कसौटी पर खरी कला को ही मान्यता देने के पीछे भी यही भावना है। 'शिव' अर्थात 'सर्व कल्याणकारी, 'कला कला के लिए' का पाश्चात्य सिद्धांत पूर्व को स्वीकार नहीं हुआ। साहित्य नर्मदा का कालजयी प्रवाह 'नर्मं ददाति इति नर्मदा' अर्थात 'जो सबको आनंद दे, वही नर्मदा' को ही आदर्श मानकर सतत सृजन पथ पर बढ़ता रहा।

मानवीय अभिव्यक्ति के शास्त्र 'साहित्य' को पश्चिम में 'पुस्तकों का समुच्चय', 'संचित ज्ञान का भंडार', जीवन की व्याख्या', आदि कहा गया है। भारत में स्थूल इन्द्रियजन्य अनुभव के स्थान पर अन्तरंग आत्मिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति को अधिक महत्व दिया गया। यह अंतर साहित्य को मस्तिष्क और ह्रदय से उद्भूत मानने का है। आप स्वयं भी अनुभव करेंगे के बौद्धिक-तार्किक कथ्य की तुलना में सरस-मर्मस्पर्शी बात अधिक प्रभाव छोड़ती है। विशेषकर काव्य (गीति या पद्य) में तो भावनाओं का ही साम्राज्य होता है।

होता नहीं दिमाग से, जो संचालित मीत।
दिल की सुन दिल से जुड़े, पा दिलवर की प्रीत।।

साध्य आत्म-आनंद है :काव्य का उद्देश्य सर्व कल्याण के साथ ही निजानंद भी मान्य है। भावानुभूति या रसानुभूति काव्य की आत्मा है किन्तु मनोरंजन मात्र ही साहित्य या काव्य का लक्ष्य या ध्येय नहीं है। आजकल दूरदर्शन पर आ रहे कार्यक्रम सिर्फ मनोरंजन पर केन्द्रित होने के कारण समाज को कुछ दे नहीं पा रहे जबकि साहित्य का सृजन ही समाज को कुछ देने के लिये किया जाता है।

जन-जन का आनंद जब, बने आत्म-आनंद।
कल-कल सलिल-निनाद सम, तभी गूँजते छंद।।
काव्य के तत्व:

बुद्धि भाव कल्पना कला, शब्द काव्य के तत्व।
तत्व न हों तो काव्य का, खो जाता है स्वत्व।।

बुद्धि या ज्ञान तत्व काव्य को ग्रहणीय बनाता है। सत-असत, ग्राह्य-अग्राह्य, शिव-अशिव, सुन्दर-असुंदर, उपयोगी-अनुपयोगी में भेद तथा उपयुक्त का चयन बुद्धि तत्व के बिना संभव नहीं। कृति को विकृति न होने देकर सुकृति बनाने में यही तत्व प्रभावी होता है।

भाव तत्व को राग तत्व या रस तत्व भी कहा जाता है। भाव की तीव्रता ही काव्य को हृद्स्पर्शी बनाती है। संवेदनशीलता तथा सहृदयता ही रचनाकार के ह्रदय से पाठक तक रस-गंगा बहाती है।

कल्पना लौकिक को अलौकिक और अलौकिक को लौकिक बनाती है। रचनाकार के ह्रदय-पटल पर बाह्य जगत तथा अंतर्जगत में हुए अनुभव अपनी छाप छोड़ते हैं। साहित्य सृजन के समय अवचेतन में संग्रहित पूर्वानुभूत संस्कारों का चित्रण कल्पना शक्ति से ही संभव होता है। रचनाकार अपने अनुभूत तथ्य को यथावत कथ्य नहीं बनाता। वह जाने-अनजाने सच=झूट का ऐसा मिश्रण करता है जो सत्यता का आभास कराता है।

कला तत्त्व को शैली भी कह सकते हैं। किसी एक अनुभव को अलग-अलग लोग अलग-अलग तरीके से व्यक्त करते हैं। हर रचनाकार का किसी बात को कहने का खास तरीके को उसकी शैली कहा जाता है। कला तत्व ही 'शिवता का वाहक होता है। कला असुंदर को भी सुन्दर बना देती है।

शब्द को कला तत्व में समाविष्ट किया जा सकता है किन्तु यह अपने आपमें एक अलग तत्व है। भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम शब्द ही होता है। रचनाकार समुचित शब्द का चयन कर पाठक को कथ्य से तादात्म्य स्थापित करने के लिए प्रेरित करता है।

साहित्य के रूप :

दिल-दिमाग की कशमकश, भावों का व्यापार।
बनता है साहित्य की, रचना का आधार।।

बुद्धि तत्त्व की प्रधानतावाला बोधात्मक साहित्य ज्ञान-वृद्धि में सहायक होता है। हृदय तत्त्व को प्रमुखता देनेवाला रागात्मक साहित्य पशुत्व से देवत्व की ओर जाना की प्रेरणा देता है। अमर साहित्यकार डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ऐसे साहित्य को 'रचनात्मक साहित्य' कहा है।

लक्ष्य और लक्षण ग्रन्थ :

रचनात्मक या रागात्मक साहित्य के दो भेद लक्ष्य ग्रन्थ और लक्षण ग्रन्थ हैं । साहित्यकार का उद्देश्य अलौकिक आनंद की सृष्टि करना होता है जिसमें रसमग्न होकर पाठक रचना के कथ्य, घटनाक्रम, पात्रों और सन्देश के साथ अभिन्न हो सके।

लक्ष्य ग्रन्थ में रचनाकार नूतन भावः लोक की सृष्टि करता है जिसके गुण-दोष विवेचन के लिए व्यापक अध्ययन-मनन पश्चात् कुछ लक्षण और नियम निर्धारित किये गए हैं ।

लक्ष्य ग्रंथों के आकलन अथवा मूल्यांकन (गुण-दोष विवेचन) संबन्धी साहित्य लक्षण ग्रन्थ होंगे। लक्ष्य ग्रन्थ साहित्य का भावः पक्ष हैं तो लक्षण ग्रन्थ विचार पक्ष।

काव्य के लक्षणों, नियमों, रस, भाव, अलंकार, गुण-दोष आदि का विवेचन 'साहित्य शास्त्र' के अंतर्गत आता है 'काव्य का रचना शास्त्र' विषय भी 'साहित्य शास्त्र' का अंग है।

साहित्य के रूप -- १. लक्ष्य ग्रन्थ : (क) दृश्य काव्य, (ख) श्रव्य काव्य।

२.लक्षण ग्रन्थ: (क) समीक्षा, (ख) साहित्य शास्त्र।

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