बाल गीत :
अपनी माँ का मुखड़ा.....
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
*
मुझको सबसे अच्छा लगता
अपनी माँ का मुखड़ा.....
*
सुबह उठाती गले लगाकर,
फिर नहलाती है बहलाकर.
आँख मूँद, कर जोड़ पूजती
प्रभु को सबकी कुशल मनाकर.
देती है ज्यादा प्रसाद फिर
सबकी नजर बचाकर.
आंचल में छिप जाता मैं
ज्यों रहे गाय सँग बछड़ा.
मुझको सबसे अच्छा लगता
अपनी माँ का मुखड़ा.....
*
बारिश में छतरी आँचल की.
ठंडी में गर्मी दामन की..
गर्मी में धोती का पंखा,
पल्लू में छाया बादल की.
कभी दिठौना, कभी आँख में
कोर बने काजल की..
दूध पिलाती है गिलास भर -
कहे बनूँ मैं तगड़ा. ,
मुझको सबसे अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा!
*****
हिंदी गीति काव्य सलिला का प्रवाह लोक-रंजन के साथ भवः-भय भंजन को इष्ट मानकर सत्-शिव-सुंदर के माध्यम से सत्-चित्त-आनंद की प्राप्ति के लिए हुआ है. निराकार अनादि-अनंत अक्षर ब्रम्ह की शब्द शक्ति भाषा के रूप में साकार होकर संवेदनाओं की अभिव्यक्ति कराकर नश्वर को शाश्वत से संयुक्त करती है. भारतीय मनीषा इसीलिये साहित्य का हेतु 'सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय' मानती है. हिन्दी गीति काव्य सलिला 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' अर्थात सभी सुखी हों के आप्त वाक्य को शब्द रूप देकर अखंड आनंद का सागर बन सकी है.
मंगलवार, 10 अगस्त 2010
बाल गीत : अपनी माँ का मुखड़ा..... संजीव वर्मा 'सलिल'
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