शुक्रवार, 13 मार्च 2009

काव्य का रचना शास्त्र :१
ध्वनि कविता की जान है... प्रश्नोत्तर :
प्रश्नकर्ता- नंदन। निधि अग्रवाल, राजीव रंजन प्रसाद को धन्यवाद।
- उत्साह वर्धन हेतु आभार: प्राण शर्मा, अजय यादव, राजीव तनेजा, दृष्टिकोण, पंकज सक्सेना, गौतम राजरिशी, विजय कुमार सप्पत्ति, रचना सागर, आलोक कटारिया, केवल कृष्ण, अनुज सिन्हा, अभिषेक सागर, अनन्या, मोहिंदर कुमार, सतपाल ख्याल, अनिल कुमार, दिव्यांशु शर्मा, ऋतू रंजन, रंजना, शोभा, अवनीश स। तिवारी, महावीर, लावणयम्, योगेश -- संजीव 'सलिल'
साहित्य क्या है?

मानव-मन में तरंगित होनेवाली ललित भावनाओं और अनुभूतियों की शब्दों में सार्थक और कलापूर्ण अभिव्यक्ति ही साहित्य है.
साहित्य मानव-मन की रमणीय- कलापूर्ण अभिव्यक्ति है.
अनुभूतियों और विचारों की अनगढ़ अभिव्यक्ति को साहित्य नहीं कहा जा सकता। अभिव्यक्ति सरस , रुचिपूर्ण तथा हृद्स्पर्शी होना चाहिए ताकि वह श्रोता या पाठक में मन में सुप्त भाव-तरंगों के उद्वेलित कर उसे रस-प्लावित कर सके। 'स्व' तक सीमित अथवा हर प्रकार के भावों और विचारों की अभिव्यक्ति को भी साहित्य नहीं कहा जा सकता। उक्त परिभाषा में 'ललित' शब्द का संकेत यही है कि 'शिवत्व' अर्थात सबके लिए हितकर, सर्व कल्याणकारी-सरस भावाभिव्यक्ति ही साहित्य है।
'साहित्य' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'सहित' शब्द से मान्य है। 'सहितस्य भावः' (सहित का भाव) साहित्य है। 'सहित' शब्द के दो अर्थ 'साथ' तथा 'समुदाय' हैं। मानव के उद्भव से अब तक सृजित ज्ञान और अनुभव का भण्डार साहित्य है। जैनेन्द्र जी के अनुसार- ' मनुष्य का और मनुष्य जाति का भाषाबद्ध या अक्षर्व्यक्त ज्ञान ही 'साहित्य' है।'
व्यापक अर्थ में साहित्य किसी भाषा में सृजित (लिखित / मौखिक) ज्ञान का भण्डार अथवा ग्रंथों का समुदाय है. हिंदी साहित्य से हिंदी वांग्मय के समस्त ग्रंथों, किसी विषय के साहित्य से उस विषय की सकल पुस्तकों का आशय अभिप्रेत है. यहाँ 'साहित्य' से आशय मानव के भावों और विचारों के प्रगटीकरण से है, भले ही उनकी प्रस्तुति कलापूर्ण न हो किन्तु उनका सृजन सभी के भले हेतु ही किया जाता है. साहित्य और असाहित्य की कसौटी सर्व कल्याण भाव ही है.
एक मान्यता यह भी है की सच्चा साहित्य कभी काल बाह्य (बासी, निरुपयोगी या अप्रासंगिक) नहीं होता। उसमें नित नवीनता, प्रति क्षण रमणीयता होती है. विज्ञानं या अन्य विषयों के साहित्य में नवीन मान्यताओं, नयी खोजों या आविष्कारों से सतत परिवर्तन होते रहते हैं किन्तु साहित्य में अभिव्यक्त चिरंतन सत्य सदा अपरिवर्तनीय होता है. क्रौंच-वध की घटना देश-काल की सीमा से बंधी थे पर क्रौंची के विरह से द्रवित महर्षि वाल्मीकि रचित श्लोक देश-काल की सीमा लांघकर सार्वजनीन-सार्वदेशिक साहित्य की सृष्टि कर सका. यही साहित्य और असाहित्य का अंतर है.

'सहित' के अन्य अर्थ 'हितेन सहितं' (हित-सहित) के अनुसार लोकहित या लोक कल्याण को साहित्य से पृथक नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से मानव में अमानवीय, निकृष्ट, क्षुद्र, पर- पीडाकारी भावनाएं उत्पन्न करनेवाली रचना को साहित्य नहीं कहा जा सकता। यह व्युत्पत्ति 'कला कला के लिए' के सिद्दांत का निराकरण कर यह प्रतिपादित करता है कि साहित्य सृजन निरुद्देश्य नहीं हो सकता. 'साहित्य को पुस्तकों का समुच्चय' या 'संचित ज्ञान का भण्डार' मानने का पाश्चात्य मत साहित्य की व्यापक भारतीय अवधारणा के अनुकूल नहीं हैं. साहित्य को 'जीवन की व्याख्या या आलोचना' अथवा 'जीवन की अभिव्यक्ति' मानने का मत भारतीय दृष्टिकोण से अपेक्षाकृत निकट होते हुए भी पूर्णतः स्वीकार्य नहीं है क्योकि साहित्य न तो जीवन के हर पक्ष की व्याख्या करता है, न ही जीवनेतर ज्ञान की व्याख्या करने को प्रतिबंधित करता है.
साहित्य का क्षेत्र मस्तिष्क नहीं, ह्रदय है। यह कथन भावनात्मक साहित्य के बारे में सटीक है पर वैज्ञानिक साहित्य के बारे में नहीं। साहित्यकार में अनुभूति की तीव्रता रचना को हृद्स्पर्शी तथा विचारों को गतिशील बनाती है। भारतीय चिंतन के अनुसार साहित्य का उद्देश्य जीवन की सरस व्याख्या द्वारा जीवन में सरसता लाकर मानव को मानव बनाना है।, परिष्कृत करना है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार 'साहित्य जनता की चित्त-वृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब' (समाज का दर्पण) है, क्योंकि साहित्य में समाज के विविध रूपों का समावेश होता है, साहित्य समाज में समाज का चेहरा दिखता है। वस्तुतः साहित्य समाज का समाज का दर्पण मात्र नहीं होता. दर्पण खुद निष्क्रिय होता है. साहित्य जड़ नहीं है, वह चेतना से उद्भूत है तथा सचेत कर सुधार की प्रेरणा देता है. साहित्य समाज का दर्पण मात्र नहीं अपितु सचेतक, सुधारक तथा निर्माणक भी है.
आलम्बते तत्क्षणम्भ्सीव विस्तारमन्यत्र न तैलबिन्दुः --मंखक
कैसे करें बखान?, कवि गुण का साहित्य बिन।
कैसे हो विस्तार? तेल-बिंदु का 'सलिल' बिन.
जिस तरह पानी की सतह के बिना तेल-बिंदु का विस्तार नहीं हो पता उसी तरह साहित्य के बिना कवि की कुशलता व्यक्त नहीं हो पाती.
साहित्य कल-कल निनादिनी नर्मदा की अबाध धारा के समान विज्ञ-सुह्रिद्जनों को नित नूतन परिवेश धारण कर आह्लादित करता है.
काव्य और कविता क्या है?

काव्य प्रकाशकार मम्मट के अनुसार: 'तद्दोशौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि' अर्थात 'काव्य ऐसी है जिसके शब्दों और अर्थों में दोष बिलकुल न हों किन्तु गुण अवश्य हों, अलंकार हों या न हों.' तदनुसार गुणों की उपस्थिति तथा दोषों का अभाव ही काव्य का लक्षण है।

पंडित प्रवर जगन्नाथ के शब्दों में: 'रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम' अर्थात 'रमणीय अर्ध प्रतिपादित करनेवाले शब्द काव्य हैं।'

अम्बिकादत्त व्यास के मतानुसार: 'लोकोत्तरानन्ददाता प्रबंधः कव्यनाम्भाक' अर्थात- 'जिस रचना को पढ़कर लोकोत्तर-अलौकिक आनंद हो, वही काव्य है।

महापात्र विश्वनाथ के लिए 'रस से परिपूर्ण वाक्य ही काव्य है'- ' रसात्मकं वाक्यम काव्यम।' लोकोत्तर आनंद, रस, रमणीयता, रागात्मकता कोंई भी शब्द दें काव्य का लक्षण या उद्देश्य दर्द-दुःख को घटना/मिटाना तथा सुख/आनंद को बढ़ाना है.
सार यह की जो रचना पढ़ने या सुनाने पर मानव-मन में आशा और आनंद का संचार करे, वही काव्य है. यह भी कि जो रचना हिट पर कोंई प्रभाव न छोडे, उसे काव्य नहीं कहा जा सकता.
वस्तुतः काव्य मानव-जीवन की अनुभूतियों, चित्त-वृत्तियों तथा श्रृष्टि सौंदर्य की व्याख्या है. दैनंदिन मानव-जीवन की सरस, हृद्स्पर्शी, आनंददायी व्याख्या जिस रचना में जितनी अधिक होगी वह उतनी अधिक सफल कही जायेगी. पाठक या श्रोता अपना सुख-दुःख भूलकर कृति के घटनाक्रम और पात्रों के साथ तन्मय होकर भाव-लोक में विचरण करने लगे, यही काव्यानंद है. काव्यात्मा या काव्यात्मा पर चर्चा अगली कड़ी में होगी.
प्रसिद्ध विचारक सुकरात के अनुसार कविता 'दैवी प्रेरणा से प्रेरित सन्देश है' किन्तु उसके शिष्य प्लेटो के मत में 'कविता सूक्ष्म जगत की प्रतिच्छायामात्र अर्थात मिथ्या व क्षणभंगुर है।अरस्तू उक्त दोनों से अलग कविता को आनंददायी छंद-बद्ध अनुकृति कहा.

सामान्यतः, काव्य से आशय 'काव्य-कृति' से तथा कविता से 'काव्य कृति का अंश' से लिया जाता है। कविताओं का संग्रह काव्य कहलाता है। यथा- महादेवी जी के काव्य से एक कविता...
कविता का महत्व:
अग्नि पुराण के अनुसार काव्य-रचियता (कवि) ब्रम्हा के समकक्ष है।
अररे खलु संसार कविरेव प्रजापतिःयथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते। -- महर्षि व्यास।

शेक्सपिअर कवि को नूतन सृष्टि का रचयिता कहता है। 'the forms of things unknown, the poet's pen turns them to shapes and gives to airy nothings a local habitation and a name।'
-- shakespeare। काव्य का रचना शास्त्र :२-संजीव 'सलिल'
दुग्धापि न दुग्धेव कविर्दोग्ध्रभिरन्वहम।
हृदि न: सन्निधत्ताम सा सूक्तिधेनु: सरस्वती। (उशना कवि)
दुहते कवि गोपाल, सूक्ति धेनु श्री शारदा।
रहे सदा वह अनदुही, ह्रदय विराजे सर्वदा।

वांग्मयमुभयधा शास्त्रं काव्यं च। शास्त्रपूर्वंकत्वात काव्यानां पूर्व शास्त्रे-स्वभिनिविशेत . नह्यप्रवर्तित- प्रदीपास्ते तत्वार्थसार्थमध्यक्ष्यंति.

अर्थात- वांग्मय के दो रूप शास्त्र और काव्य है। काव्य सृजन के पूर्व शास्त्र-ज्ञान अनिवार्य है. शास्त्र रूपी दीपक के प्रकाश के बिना तत्वार्थ का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता.

भारतीय काव्य शास्त्र परंपरा :

विश्व वांग्मय के आदि महाग्रन्थ ऋग्वेद ( रचनाकाल अविनाश चंद दास के अनुसार भूगर्भ शास्त्र के अनुसार लाखों वर्ष पूर्व१, डॉ। ऐ। सी। दत्त के मत में ७५००० से ५०००० ई। पू।, जर्मन विद्वान जैकोबी एवं बाल गंगाधर तिलक के मत में ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ४५०० ई. पू., पं. रामगोपाल द्विवेदी के अनुसार ५०००० से १८००० ई; पू;, विंटर नित्ज़ के अनुसार २५०० ई; पू;, मक्स्मूलर के मत में १५०० ई.;पू; में रचित)२ के १० मंडलों, १०२८ सूक्तों में विविध ऋषियों ( वागाम्भ्रिणी३, घोषा काक्षीवती४, अपाला, आत्रेयी५, आदि महिला ऋषियों सहित) ने अन्य विषयों के साथ काव्य शास्त्र का भी अद्भुत वर्णन किया है.
ऋग्वेद में सूर्य का वर्णन स्वर्ण-रथारोही के रूप में है।
'हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन।६
अर्थात- 'स्वर्ण-रथ पर आ रहा रवि भुवन सारे देखता।'
सामवेद में १५४९ मंत्रों में मधुर-सरस प्रार्थना कर देवों की प्रसन्नता चाही गयी है। उषा के अनिंद्य सौंदर्य की प्रशंसा कर उसे सूर्य की प्रेयसी कहते हुए प्रार्थना की गयी है-
'रूपसी नृत्यांगना सम वासन सुन्दर किये धारण।
उषा प्राची में प्रगट सौन्दर्य का करती प्रकाशन।
चिर पुरातन-चिर नवीन, यौवना रवि-प्रेयसी यह,
जन्मती हर प्रात फिर-फिर, अमर-अक्षय रूपसी यह।
- यजुर्वेद ( मैक्समूलर के अनुसार १००० ई।पू।)९ में सत-असत के संघर्ष (देवासुर संग्राम), वर्ण-व्यवस्था, दस्तकारी, विज्ञान, व्यवसाय तथा यज्ञ आदि के वर्णन में गद्य-पद्य का मिला-जुला प्रयोग किया गया है।८
-अथर्ववेद के २० कांडों, ७३० सूक्तों व ६००० मंत्रों में धर्म, नीति, आयुर्वेद, सौर ऊर्जा, ज्योतिष, वर्ण-व्यवस्था, ईश-भक्ति, समाजशास्त्र आदि का काव्यमय वर्णन है।१० इसमें गोपथ ब्राम्हण भी है। प्रसिद्ध विद्वान डॉ। विष्णुकांत वर्मा ने वेदों में आध्यात्म विद्या तथा ऋग्वेद में सृष्टि उत्पत्ति एवं परमाणु विज्ञानं के अनेक प्रमाण दिए हैं।

-ब्राम्हण साहित्य (ई।पू. ५००-१००) में वेड मंत्रों के भाष्य, यज्ञ-विज्ञानं, वास्तु, गणित, दर्शन तथा एतिहासिक कथाएं हैं. इनमें भ्रामक मीमांसाओं११ व कर्मकांड को महत्व देते हुए अधिकांश सृजन गद्य में किया गया. -आरण्यक ग्रंथों में द्फर्शन, आध्यात्म, आत्मा, ब्रम्ह, शिक्षा, व्याकरण, छड़, निरुक्त, कल्प, ज्योतिष आदि वेदांगों का सृजन मुख्यतः सन्यासियों के लिया किया गया.

-ई।पू। ६०० से रचित १०८ उपनिषदों में ब्रम्हा, आत्मा, मृत्योपरांत जीवन, पुनर्जन्म, वर्णाश्रम आदि का वर्णन है. अल्लोपनिषद की रचना मुग़ल सम्राट अकबर के काल में हुई. उप्निशादोम में काव्य विधा को बहुत महत्व मिला. सृष्टि का निर्माण करनेवाले परम तत्त्व को अनादी. अनंत, नित्य, सर्व-व्यापी मानने की औपनिषदिक अवधारणा अधुनातन विज्ञानं भी मानता है.
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवाव्शिष्यते.१२
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण से उत्पन्न पूर्ण।
पूर्ण से निकल पूर्ण, शेष तब भी रहे पूर्ण।

मुण्डक उपनिषद में ॐ को धनुष, आत्मा को तीर तथा ब्रम्ह को लक्ष्य बताया गया है।१३ क्रमशः आत्मा से आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी तथा वनस्पति उत्पन्न होने की औपनिषदिक धारणा१४ को विज्ञानं भी स्वीकारता है.

- ४ उपवेदों (आयुर्वेद, धनुर्वेद, गांधर्ववेद, अर्थशास्त्र), ६ वेदांगों (शिक्षा, छंद, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष एवं कल्प) तथा उपांगों में गद्य तह पद्य का निरंतर विकास हुआ। शिक्षा को वेदों की नासिका, छंद को चरण, व्याकरण को मुख, निरुक्त को कान, ज्योतिष को आँख तथा कल्प को हाथ कहा जाना बताता है कि इस काल में गद्य-पद्य दोनों को यथोचित महत्व
-सूत्र साहित्य (श्रौत, गृह्य तथा धर्म सूत्र) में कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की काव्यात्मक शैली का विकास हुआ।
सन्यास: कर्म योगश्च: नि:श्रेयस करावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंयासातकर्मयोगो विशिष्टते।१६
करते हैं सन्यास औ' कर्मयोग कल्याण।
तदपि कर्म-सन्यास से कर्म-योग गुणवान।
तपस्विभ्योधिको योगी, ज्ञानिभ्योपि गतोधिकः।
कर्म्श्चाधिको योगी, तस्माद्योगी भवर्जुन।१७
तापस ज्ञानी सुकर्मी, योगी सबमें श्रेष्ठ।
बनकर योगी, पार्थ तू, हो जा सबसे ज्येष्ठ.

श्री कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश शरीर को आत्मा का वस्त्र बताया।१८ इसी तरह कविता को अनुभूतियों का वस्त्र कहा जा सकता है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचिन
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि। १९
तुझे कर्म अधिकार है, सोच न तू परिणाम।
तज निष्क्रियता कर्म कर, कुछ भी हो अंजाम।
काव्य को ई। पू। १२०० - ई. पू. १०० में रचित १८ पुराणों ( ब्रम्ह, पद्म, वायु, विष्णु, भागवत, नारद, मार्कंडेय, अग्नि, भविष्य, ब्रम्हवैवर्त, लिंग, वाराह, स्कन्द, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड़, ब्रम्हांड) तथा १८ उप-पुराणों ( नृसिंह, सनत्कुमार, नन्द, शिव, दुर्वासा, नारद, कपिल, वामन, उपनस, मानव, वरुण, काली, महेश्वर, साम्ब, सौर, पराशर, मारीच, भार्गव) में पर्याप्त महत्त्व मिला. इनमें राजवंशों, युद्धों, पंथों, सम्प्रदायों, सृष्टि-उत्पत्ति व देवताओं का वर्णन है. २०,२१,२२ ई. पू. २०० -३०० ई. के बीच लिखित १५२ स्मृतियों तथा उनकी टीकाओं ने वेदान्त, सांख्य, लोकाचार, मानव-मूल्यों, वर्ना तथा दंड व्यवस्था आदि का समावेश है. २३ काव्य को शिखर पर ले जाने का कार्य किया महर्षि वाल्मीकि और 'रामायण' ने. एक बहेलिये द्वारा मिथुनरत क्रौंच युगल पर शर संधान के कारण नर की असमय मृत्यु तथा मादा के करूँ विलाप से शोकग्रस्त पूर्व दस्यु महर्षि वाल्मीकि के मुंह से अनायास ही निम्न काव्य-पंक्तियाँ निःसृत हुईं. २३,२४
मा निषाद प्रतिष्ठामत्वमगमः शाश्वती समाः
यत्क्रौंच मिथुनादेकम्वधी: काममोहितं॥
हे निषाद! तुझको कभी, किंचित मिले न मान।
रति-क्रीडारत क्रौंच का,वध दुष्कृत्य महान।
। पू। ५०० में रचित रामायण ने काव्य के मानकों का निर्धारण किया। अभूतपूर्व कथावस्तु, अद्भुत चरित्र-चित्रण, उदात्त विषय, प्रांजल भाषा, चारू छंद-वैविध्य, भावः गाम्भीर्य, रम्य अलंकार, सर्व हितकर आदर्श, कालजयी नायक-नायिका, श्वास रोधक घटना क्रम, रोचक उपकथायें, मनहर प्रकृति चित्रण, विविध रसों का समन्वय, वैचारिक द्वंद, न्याय-अन्याय की संघर्ष कथा आदि काव्य-मानक रामायण में पहली बार सामने आये। २५, २६, २७ ९ कांडों (मूलतः ५) तथा २४००० श्लोकों के इस ग्रन्थ में वाल्मीकि ने मछलियोंरूपी करधनी का प्रदर्शन करती नदी के गति उसी तरह मंद होने की कल्पना के है जैसे पतियों द्वारा रात्रि में भोगी गयी कामिनियों की प्रातः काल होती है। यह जीवंत शब्द-चित्र अपनी मिसाल आप है।
मीनोपसन्दर्शितमेखलाम नदीवधूनाम गत्योद्य मंदाह।
कान्तोपभुक्तालासगामिनीनां प्रभात्कालेश्विव कामिनीनाम।२८
मत्स्य मेखला सुशोभित, सलिला वधु-गति मंद।
कान्त रमित रमणी चले, प्रातः अलस- गयंद ।
- भारतीय काव्य शास्त्र परंपरा को समृद्ध किया ई। पू। १००० में महर्षि वेदव्यास रचित १८ पर्वों में १ लाख श्लोकों में रासबिहारी गोवर्धनधारी श्री कृष्ण की कालजयी कथा के बहाने सत-असत के संघर्ष की महागाथा कहने वाले महाकाव्य / महाभारत (पूर्व नाम जय-विजय, भारत) ने। इसे धर्मशास्त्र, स्मृति तथा कार्ष्ण वेद, पंचम वेद भी कहा गया। आरम्भ में मात्र २०००० श्लोकों वाले इस महाकाव्य में श्री मदभगवद गीता की स्वतंत्र कथा, शिव व विष्णु संबन्धी प्रसंग (ई।पू।३००), हरिवंश आदि जुड़ गए। इस कृति का उद्देश्य काव्य सौष्ठव नहीं धार्मिक-दार्शनिक-सामाजिक-राजनैतिक विसंगतियों, दोहरे जीवन मूल्यों, आडम्बरों तथा स्वर्थ्प्रधन प्रवृत्ति को उद्घाटित कर आदर्श, औदार्य, संयम, चारित्र्य, शौर्य, त्याग तथा समानता के सप्त सूत्रों को पुनर्प्रतिष्ठित करना है। रामायण में भी यही आदर्श आर्य-अनार्य सांस्कृतिक संघर्ष की कथा से स्थापित करने का प्रयास किया गया था। रामायण में राम स्वयं शःत्र उठाकर संघर्ष करते हैं जबकि महाभारत में कृष्ण नि:शास्त्र रहकर परिवर्तन का पथ प्रशस्त करते हैं। राम के संघर्ष का हेतु अपनी पत्नी को पाना है किन्तु कृष्ण तो सत्य की स्थापना के लिए संकल्पित हैं। इन ग्रंथों से भारतीय काव्य परंपरा की प्रकृति ज्ञात होती है जो उदात्तता की ओर उन्मुख होने को काव्य सृजन का लक्ष्य मानती है। ३०-३१ महाभारत का उद्देश्य अन्य होते हुए भी इसमें काव्य गुणों तथा पृकृति चित्रण के मनिहार प्रसंग शब्दांकित हैं। चंद्रोदय का निम्न प्रसंग रचनाकार के सामर्थ्य की बानगी है-
ततः कुमुदनाथेन कामिनीगंडपांडुना ।
नेत्रानन्देन चन्द्रेण माहेन्द्री दिग्लंक्रिता॥
शुभ्र कामिनी गाल सम, शोभित शतदल कन्त।
नयनानन्दी चन्द्र से, सज्जित प्राच्य दिगंत।
अन्य प्रसंग में द्रौपदी की अनिंद्य रूप्राशी का वर्णन करते हुए स्वयम्वर में जाते ब्राम्हण युधिष्ठिर से कहते हैं की उस क्षीण कटी , निर्दोष अंगवाली धृष्टद्युम्न की बहिन की काया से निकलनेवाली नीलकमल सी गंध एक कोस दूर तक बहती है।
स्वसा तस्यानवद्यांगी द्रौपदी तनुमध्यमा।
नीलोत्पल्सम गन्धो यस्याः कोशात प्रवाती वै..
कृष्णा काम्या क्षीण कटि, तन्वंगी सुकुमार।
नील पद्म सी सुवासित, कोसों बहे बयार.

भारतीय काव्य परंपरा के दुर्निवार आकर्षण से बौद्ध (त्रिपिटिक- विनय, सुत्त, अभिधम्म, थेरी गाथा) तथा जैन (१२ अंग, १२ उपांग, १० प्रकीर्ण, सूत्रादि) भी नहीं बच पाए। इस परंपरा ने वैदिक, लौकिक- प्राकृत, पाली, अपभ्रंश, शौरसेनी, मागधी, संस्कृत, बंगला, मराठी, मैथिली, ब्रिज भोजपुरी, अंगिका, बज्जिका, तमिल। तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, गुजराती, मालावी, निमाड़ी, बुन्देली, बघेली, मारवाडी, शेखावाटी, काठियावाडी छतीसगढी, उड़िया आदि पर भी अपना प्रभाव छोडा और उन्हें अपने दामन में समाहित कर लिया।
क्रमशः
सन्दर्भ: १। शिवदत ज्ञानी- भारतीय संस्कृति, पृष्ठ २०३। २। सुशील धर द्विवेदी- भारतीय संस्कृति के पांच अध्याय, पृष्ठ १५९, ३ से ६। ऋग्वेद- १०/१२५, १०/३९, ८/९२, १/३५/२, ७। सामवेद- ३-६१/१ -५, ८। उक्त २, पृष्ठ १६१, ९। उक्त १, पृष्ठ २०३, १०। अथर्व वेद ३/४/२, ११। उक्त २, पृष्ठ १६३, १२। वृहदारण्यक २/५/१९, १३। मुंडकोपनिषद १/१/६, १४। तैत्तरीयोपनिषद २/१/६/७, १५। रामधारी सिंह दिनकर- संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ १६३, १६ से १९ । गीता ५/२, ६/४६, २/२२-२३, २/४७, २०। उक्त १ पृष्ठ२२०, २१। उक्त १ पृष्ठ२५९, २२। उक्त २ पृष्ठ १७२-१७६, २३। हीरामणि द्वारकादास बरसैंया- भारतीय संस्कृति : क्या और कैसे? पृष्ठ ५२-५३, २४। उक्त २ पृष्ठ१७९, २५। उक्त १ पृष्ठ२१५-२१६, २६। राधाकुमुद मुखर्जी- प्राचीन भारत पृष्ठ४१, २७। उक्त २५, २८। उक्त २४, २९. उक्त१ पृष्ठ २१७-२१८, ३०. उक्त २ पृष्ठ१८०-१८१, ३१. उक्त २६, ३२. महाभारत द्रोण पर्व ११/२५९, ३३. महाभारत आदि पर्व १८३/१०, ३४. उक्त२ पृष्ठ १८२-१८५.
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5 टिप्‍पणियां:

  1. मानीय महोदय
    आपके ब्लाग पर सिाहित्य के संबंध में आपके विचारों से अवगत हुआ। क्यों न इन विचारों को आप एक संग्रह के रूप में प्रकाशित कराएं। यदि आप प्रकाशन के लिए हमारी सेवाएं चाहते हैं तो मेरे बालगा पर पधारें आप निराश नहीं होगें।
    अखिलेश शुक्ल
    संपादक कथा चक्र
    please log on to
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  2. बहुत ही सारगर्भित अभिव्‍यक्ति है। विद्यार्थियों के लिए बहुत ही उत्तम सामग्री उपलब्‍ध करायी है। नए ब्‍लाग के लिए आपको शुभकामनाएं। छन्‍द शास्‍त्र के बारे में भी क्रमश: जानकारी उपलब्‍ध करावें, इससे सभी को लाभ होगा।

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  3. 'सलिल' जी,
    आपका परिचय पढ़कर बहुत अच्छा लगा। अन्तरजाल पर आपकी उपस्थिति और आपका योगदान हिन्दी के लिये अमृत का काम करेगा।

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